गाड़ी आने के लगभग आधा घंटा पहले मैं स्टेशन पहुँच गया। रात के साढ़े बारह बज
रहे थे। जुलाई के अंतिम कुछ ही दिन बाकी थे। पिछले दस घंटे से हो रही लगातार
बारिश अब रुक चुकी थी। लेकिन पानी जहाँ तहाँ से बह रहा था जो बारिश की
निरंतरता को बनाए हुए था।
स्टेशन लगभग शांत था। बाहर की कीचड़ पैरों-पैरों होते हुए प्लेटफार्म तक पहुँच
गई थी। कहीं कहीं प्लेटफार्म की छत से पानी बूँद बूँद टपककर पूरे फर्श को गीला
कर चुका था। इसमें उन तेज बौछारों का हाथ भी कम नहीं था जो अभी कुछ समय पहले
तक लगातार पड़ती रही थी। प्लेटफार्म की कुर्सियाँ कीचड़ से सनी थी। कुछ लोग
कुर्सियों की पीठ पर बैठे थे और बैठने की जगह पर अपने जूते चप्पलों को टिकाए
हुए थे। सूखी कुर्सियों पर अखबार बिछाए हुए लोग सो रहे थे। मेरे पास खड़े रहने
के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
मैं पिता से मिलने आया था जो हैदराबाद से अपना चेक-अप कराकर अपने शहर भिलाई
नगर लौट रहे थे। चेक-अप का सारा खर्च मैंने एडवांस में भर दिया था और डॉक्टर
से तीन महीने पहले ही एपॉइंटमेंट ले लिया था। जाँच से पता चला कि उनके दिल में
तीन ब्लॉकेज हैं। पिछले कुछ दिनों से पिता जल्दी हाँफ जाने की शिकायत करने लगे
थे। इसे पूरी गंभीरता से लेते हुए मैंने हैदराबाद में इलाज करवाना पक्का किया
क्योंकि वहाँ मेरे कुछ परिचित के लोग रहते थे। मैंने महीने भर पहले ही छुट्टी
के लिए आवेदन कर दिया था और वह मंजूर भी हो गया था। लेकिन ऐन मौके पर बारिश की
कुछ बंपर योजनाओं पर तुरंत नए तरह से काम करने की जरूरत का हवाला देते हुए
मेरी छुट्टी रद्द कर दी गई और मुझे नए प्रोजेक्ट थमा दिए गए।
मन तो हुआ था कि प्रोजेक्ट की फाइल बॉस के सिर पर दे मारूँ। लेकिन ऐसे क्षोभ
के लिए हमारी दुनिया में कोई जगह नहीं है। तत्परता... हाँ यही हमारी कारपोरेट
दुनिया का अंतिम सच है। अपनी चौदह घंटे की रोजाना नौकरी में सिवाय तत्परता के
और कुछ भी नहीं।
'सिकंदराबाद से चलकर दरभंगा की ओर जाने वाली गाड़ी क्रमांक 7007 के आने का
संकेत हो चुका है। यह गाड़ी कुछ ही समय पश्चात् प्लेटफार्म क्रमांक पाँच पर
आएगी।' एक यंत्रचालित स्त्री-आवाज मराठी, हिंदी और अँग्रेजी में लगातार इस
सूचना को शालीन तरीके से प्रक्षेपित कर रही थी। गाड़ी के आने की सूचना से
प्लेटफार्म में कुछ हलचल हुई। नींद में डूबे बच्चों को माँएँ झिझोंड़ने लगीं।
पुरुष सामानों को ठीक से जमाने लगे थे। चाय की केतली गर्म होने लगी थी। वेंडर
कुछ और सामान बेच लेने की तैयारी में लग गए थे। ये सारी तैयारियाँ भी जैसे
किसी 'यात्रा' नाम के महानाटक का जरूरी हिस्सा है, मैंने सोचा और पटरी की उस
दिशा में देखने लगा जहाँ से ट्रेन को आना था।
दूर पटरी के आस-पास पसरे अँधेरे के बीच पहले रोशनी का एक गोला दिखा, जो स्टेशन
की ओर सरक रहा था। फिर उस गोले का घेरा बढ़ता गया। गाड़ी धीरे-धीरे प्लेटफार्म
में प्रवेश कर रही थी। और मैं ट्रेन के चालक को देखने लगा। बहुत बचपन से ही
ट्रेन के चालक मेरे कुतूहल का हिस्सा रहे हैं। उन दिनों जब हमारे गाँव की ओर
जाने वाली ट्रेन कोयले से चलती थी, ट्रेन के चालक सिर में कपड़ा बाँधे रहते थे।
उन्हें देखकर मैं उनके बारे में सोचता था कि कितना बढ़िया है उनका जीवन। दिन भर
घूमो और जब चाहो, ट्रेन की सीटी बजा दो। लेकिन इस गाड़ी के चालक वैसे नहीं थे।
एक अधेड़ और एक युवा, दोनों ही अपने काम पर्याप्त जिम्मेदार दिखते हुए-से। बचपन
में देखे हुए ट्रेन चालकों की तरह ये बिल्कुल नहीं थे। फिर भी उन्हें देखकर
मुझे अच्छा-सा लगा।
'एस-7' पिता ने टेलीफोन पर सूचना दे दी थी। मैं नियत स्थान पर खड़ा हो गया,
जहाँ वह बोगी रुकने वाली थी। मुझे वे दिन फिर से याद आने लगे जब गाड़ी के आने
के बाद मुसाफिरों का रेला आगे से पीछे और पीछे से आगे बदहवास भागता था। टीन की
ट्रंक पुरुषों के सिर पर और स्त्रियाँ छोटे बच्चों को गोदी में उठाए। थोड़े बड़े
बच्चे उनके पीछे। जनरल बोगी में दरवाजा खोलने की गुहार लगाते चिल्लाते गाली
बकते मर्द और औरतें... दुनिया में कितना कुछ बदल गया है। शर्त बस यही है कि इस
बदलाव को खरीदने का सामर्थ्य आपके पास हो।
गाड़ी रुकी। मैं एस-7 के दरवाजे के सामने था लेकिन पिता वहाँ नहीं थे। अचानक
बोगी के दूसरे दरवाजे से मुझे अपने नाम की पुकार सुनाई पड़ी। मैंने देखा, पिता
दूसरे दरवाजे से उतर चुके थे और मुझे पुकार रहे थे। मैं तेजी से उनके पास गया,
पाँव छुए और उनके साथ बोगी के अंदर आ गया।
अपनी खराश वाली आवाज के साथ पिता बीमारी, उसका इलाज और बरती जाने वाली
सावधानियों के बारे में अटक-अटक बताते रहे। मैंने लक्ष्य किया, वे जितना बता
रहे थे उससे कहीं ज्यादा छिपा रहे थे। इसका एक कारण तो उनके और मेरे बीच का
रिश्ता भी था। उनके और मेरे बीच हमेशा ही संवादहीनता की स्थिति बनी रही। मुझे
ठीक-ठीक याद नहीं कि कैशोर्य की देहरी लाँघने के बाद मैंने उनसे कभी सीधे बात
की हो या कुछ माँगा हो। ऐसे में उनकी छुपाने की मंशा अजीब तो नहीं थी लेकिन
फिर भी मैं अटपटा महसूस कर रहा था। छुपाने का अभ्यास उन्हें भी नहीं था इसलिए
बोलते-बोलते अपना वाक्य वे बीच में ही छोड़ देते और किसी दूसरे वाक्य का सिरा
पकड़ लेते। मुझे इस वक्त वे एक लाचार बूढ़े की तरह लग रहे थे।
लेकिन पिता हमेशा से ऐसे ही नहीं थे। एक उम्र तक वे बहुत आक्रामक रहे। मुझे अब
भी याद है, लकड़ी की अलमारी के ऊपर एक बेंत रखी होती थी। वे जब घर में न होते
तो बेंत ही उनकी उपस्थिति का एहसास कराती रहती। हमारी शैतानियों के बीच माँ भी
बराबर उसकी याद दिलाती रहती। बेंत की याद आते ही हम कुछ पल के सहमकर शांत हो
जाते। कभी कभी जब लौटने के थोड़ी देर बाद ही पिता हमारी शैतानियाँ जान जाते, तब
लगता कि जरूर उनकी बेंत की आँखें हैं जो सबकुछ देखती रहती है। यह विश्वास बहुत
बाद तक बना रहा।
हम बड़े हुए और बेंत निस्तेज होकर किसी खोह में बिला गई। शायद वह अब भी कहीं
पड़ी हो। हो सकता है कि समय के दीमकों ने उसे चट कर दिया हो।
एक लंबा समय बेआवाज बीत गया। कम से कम अब तो यही लगता है कि बेआवाज बीत गया।
लेकिन कोई समय कहाँ बेआवाज बीतता है। शायद हमारी दौड़ उनकी आवाज से ज्यादा तेज
थी इसलिए उनकी पुकार हम तक पहुँच नहीं पाई। या क्या पता, शायद पिता ने पुकारा
ही न हो। और यदि पुकारते तो भी क्या हम उन्हें जवाब देने की स्थिति में थे?
मेरी दोनों बहनें अपने-अपने परिवारों में पूरी तरह डूबी हुई हैं। बड़े भैया
पिछले पाँच सालों से अमेरिका के अलग-अलग शहरों में घूम रहे हैं और मैं यहाँ
देश के अलग-अलग शहरों में... मुंबई, बँगलुरू, पुणे, दिल्ली, हैदराबाद और अब
पिछले दो महीने से यहाँ नागपुर में।
'चाय पिएँगे', मैंने पूछा।
सिर हिलाकर पिता ने नहीं का इशारा किया और नमकीन बिस्किट का पैकेट लाने को
कहा। बिस्किट लाने को जब मैं उतरा तो मेरी जगह को ट्रेन की नीली रोशनी ने भर
दिया।
इक्का दुक्का आदमी ट्रेन में चढ़ उतर रहे थे। कुछ चाय वाले झुँझलाकर अपने अपने
अंदाज में 'चाय' या 'कॉफी' चिल्ला रहे थे। उनके लिए चाय या कॉफी बेच लेने से
ज्यादा जरूरी लोगों को जगा देना था। और कुछ लोगों को इसमें कामयाबी भी मिल
चुकी थी। एक यांत्रिक आवाज बार-बार स्टेशन पर उतरे हुए लोगों का स्वागत कर रही
थी। कुछ लोगों की आँखें गाड़ी के रुकने के साथ ही खुल गई थी और वे लेटे-लेटे ही
खिड़की से स्टेशन को टोहने की कोशिश कर रहे थे। उनमें से अधिकतर लोगों ने
अपने-अपने सामानों के होने की पुष्टि कर ली थी और नजर बचाकर अपने जूते-चप्पल
देख रहे थे। यह पूरा दृश्य-व्यापार बोगी के बाहर की पीली रोशनी और बोगी के
भीतर की नीली रोशनी में एकसाथ घटित हो रहा था।
मैं बिस्किट का एक बड़ा पैकेट और बोतलबंद पानी लेकर लौटा। बोतलबंद पानी देखकर
पिता के तांबई चेहरे पर कुछ दरकता हुआ मैंने महसूस किया क्योंकि उनके हाथ में
वाटर बैग था। शायद उसे भरकर लाने के लिए मुझे कहने वाले थे।
'इसे क्यों ले आए? बेकार में दस रुपए खर्च कर दिए', यह उनके चेहरे में ताजा
बनी हुई दरार से फूटती हुई एक आवाज थी, 'वाटर बैग तो था ही।'
मैं बोलते-बोलते रह गया कि पानी अब दस नहीं पंद्रह रुपये में मिलता है और
स्टेशन में तो अठारह-बीस रुपए तक देने पड़ते हैं।
पिता बिस्किट खाने लगे। और इस दौरान उनकी आँखें इधर-उधर देखती रही। मैंने गौर
से उनका चेहरा देखा। ताँबे का लोटा बहुत दिनों तक संदूक में बंद हो या उपयोग
में न लाया जा रहा हो तो उस पर एक हल्की हरी परत चढ़ जाती है। पिता के तांबई
चेहरे पर भी थकान की परत चढ़ चुकी थी। उनके चेहरे में कुछ बुझ रहा था। वे उस
शहर में रह रहे थे जहाँ हमारा बचपन बीता । मैंने बहुत आग्रह किया कि वे हमारे
साथ रहें लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। हालाँकि ऐसा बिल्कुल नहीं था कि उन्हें अपने
शहर से बहुत मोह हो या व्यापार बहुत फैला हुआ हुआ हो या बहुत संपत्ति हो जिसकी
सतत निगरानी जरूरी हो। वह उनका पैतृक शहर था भी नहीं। बारह की उम्र में ही
गरीबी से त्रस्त होकर वे अपने गाँव से जो भागे तो भटकते-भटकते आखिरकार उस
औद्योगिक नगरी में पैर टिकाया, जहाँ वे अभी रह रहे थे। उनकी जिंदगी के चालीस
से अधिक वर्ष उसी शहर में बीते थे। इन वर्षों में उन्होंने कारखाने में बोझा
ढोया, हथौड़ा चलाया, सलाखें बनाई, हम भाई-बहनों को पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया और
अपनी पहुँच से आजाद कर दिया। या क्या पता, शायद हम ही उनकी पहुँच से आजाद होते
चले गए। वे वहीं रह गए। माँ के बाद तो बिल्कुल अकेले।
'घर कब तक बना लोगे', पिता ने पूछा।
'एक फ्लैट देखा है। अच्छी जगह पर है। कुछ पैसे जमा किए हैं। बाकी पैसों के लिए
लोन ले रहा हूँ।' फ्लैट की कीमत और लोन की राशि जान-बूझकर मैंने नहीं बताई और
न ही इस बारे में उन्होंने कुछ पूछा।
'उधार उधार ही होता है, फिर चाहे उसका नाम लोन ही क्यों न हो', पिता ने मेरी
युक्ति के उत्तर में धीमी साँस छोड़ते हुए कहा। हालाँकि हमारे समय में उनकी
युक्ति में कोई दम नहीं था। मैं जान रहा था कि वे अपना घर न बना पाने का
स्पष्टीकरण दे रहे हैं। हम बचपने से ही किराये के मकान में रहे। पिता आज भी
किराये के मकान में रह रहे हैं। वैसे मेरे फ्लैट लेने के फैसले से उन्हें दिली
तौर पर खुशी ही हुई थी। यह मैं बहनों के मार्फत जानता था। वे इधर चलकर हम
दोनों भाइयों की बजाय अपनी लड़कियों से थोड़ा ज्यादा अनौपचारिक हो गए थे। लेकिन
इस वक्त उनके भीतर एक अदद घर न बना पाने की अक्षमता सिर उठा रही थी।
मैंने पिता की समझाइश का कोई जवाब नहीं दिया। केवल इस अंदाज में सिर हिलाया
जिसका अर्थ न तो सहमति होता है और न ही इनकार। और उनके लहजे पर गौर किया। उनकी
आवाज में आदेश नहीं था, याचना का पुट था। सत्तर पार पिता क्या याचक हो जाता
है! यह प्रश्न मुझे चीरते हुए निकल गया और में नजर बचाकर नीली लाइट की ओर
देखने लगा, जिसके इर्द-गिर्द चार-पाँच कीड़े उड़ रहे थे।
पिता कुछ टूटे-फूटे वाक्य कहते और फिर चुप हो जाते। उनकी आवाज में पहले वाली
खनक नहीं थी। मुझे उनकी चुप्पी खल रही थी। हालाँकि वह कुलीन चुप्पी नहीं थी।
वे कुलीन कभी नहीं रहेऔर न ही ऐसी कोई चाह उनके भीतर थी। हमने जीवन भर उन्हें
अपने हिस्से में कुछ न कुछ कटौती करते हुए ही देखा। लेकिन हमें उनके द्वारा
हमारे हिस्से की कटौती कभी अच्छी नहीं लगी। बचपन से जूते की जिद जब कॉलेज के
दिनों में पूरी हुई, तब तक हमने यह धारणा बना ली थी कि वे हमें दूसरे पिताओं
की तरह प्यार नहीं करते। हमारे घर में कभी ढंग के पर्दे नहीं लटके और न ही
हमने पूरे परिवार के साथ मिलकर कभी कुल्फी, चाट या गोलगप्पे खाये। अधिक से
अधिक वे हम भाई बहनों में से किसी एक या दो को अलग से चाट या कुल्फी खिला दिया
करते थे, वह भी तब जब वे कभी अपने काम से हमें बाहर ले जाते थे।
मैंने गौर किया कि पिता ने अपनी बर्थ पर चादर नहीं बिछाई है। जुलाई की लगातार
बारिश से मौसम काफी ठंडा हो गया था और पिता ठंड से अच्छे खासे डरने वाले
व्यक्ति थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि ठंड के दिनों में शौच के लिए जाते वक्त
भी, अगर संभव हो तो, वे पानी गर्म करवा लिया करते थे। लेकिन अभी एक मटमैली
धोती, कुर्ता और एक भूरे रंग की पुरानी स्वेटर पहने अपनी सीट पर सिकुड़े-दुबके
हुए-से बैठे थे।
'बिस्तर क्यों नहीं बिछाया?'
'कुछ नहीं, बस ऐसे ही, नींद नहीं आ रही थी।'
'नींद नहीं आ रही थी तो भी, चादर तो बिछा ही लेना चाहिए था न। देखो तो, सीट
कितनी ठण्डी हो गई है!'
'रहने दो, बाद में बिछा लूँगा।'
'बाद में बिछा लूँगा का क्या मतलब? लाओ चादर निकालो', और मैं सीट के नीचे से
उनका बरसों पुराना बैग, जिसके साथ ही वे अपनी यात्रा करते थे, खींचने लगा।
'नहीं रहने दो, सीट में कोई और भी बैठा है।'
'कोई और भी क्यों? सीट तो आपकी ही है न?'
'हाँ, सीट तो मेरी ही है। लेकिन उसे रिजर्वेशन नहीं मिला। और फर्श तो तुम देख
ही रहे हो, कीचड़ कीचड़ है। और फिर वह मुझसे भी अधिक उम्र वाला है... बीमार और
कमजोर भी...', पिता लगभग रिरियाते हुए कह रहे थे जैसे उनके ही कारण उसे बर्थ न
मिली हो।
'कहाँ से वह आपकी आधी सीट पर कब्ज़ा जमाए हुए है?'
'काजीपेठ से...'
'अभी वह कहाँ गया है?' मैंने थोड़ी झल्लाहट के साथ पूछा। पिछले बारह घंटे से
पिता सीट के एक कोने में मुड़े-तुड़े बैठे थे। मुझे पिता पर नहीं, उस आदमी पर
गुस्सा आ रहा था। उम्र न सही, पिता की सेहत का ख्याल तो उसे रखना था! पिता के
हृदय में तीन ब्लॉकेज थे और ऐसा नहीं हो सकता कि उसे यह बात अब तक न मालूम हो।
मुझे गुस्सा अपने ऊपर भी आ रहा था और बॉस पर भी। टिकट तो हवाई जहाज से ही था।
लेकिन मेरा न जाना जानकर पिता ने अकेले हवाई जहाज से सफर करने से इनकार कर
दिया। मजबूरन रेल की टिकट लेनी पड़ी। ए.सी. की टिकट मिली ही नहीं। यही टिकट
बहुत मुश्किल से मिली थी।
अपनी झल्लाहट और बेबसी को किसी तरह काबू में रखते हुए मैंने कहा, 'कम से कम
चादर तो बिछा लो। सीट की ठंडक से राहत मिलेगी। कहाँ है चादर?' मैं फिर हठ पर
उतर आया था।
'नहीं...नहीं..., रहने दो आधी सीट पर चादर बिछाना अच्छा नहीं लगेगा', पिता ने
याचना भरी आपत्ति जताई।
'तो पूरी सीट पर चादर बिछा लो। अब जब उसे आधी सीट दे ही दी है तो चादर पर भी
बैठने दो।' मैं फिर बैग खींचने लगा।
'रहने दो, पाँच घंटे ही तो रह गए हैं।'
'पाँच घंटे आधी रात से सुबह तक के हैं। गाड़ी जब आमगाँव के बाद के जंगल से
गुजरेगी तो ज्यादा ठंड लगेगी। चादर कहाँ है?' इस बार मैंने थोड़ी कड़ाई से पूछा।
चादर मत बिछाओ। बेवजह धोबी को देना होगा। अभी ज्यादा गंदा नहीं हुआ है।'
'ज्यादा गंदा नहीं हुआ है तो धोबी को क्यों देना पड़ेगा? घर में ही धुलवा
लेना।'
'असल में... वो आदमी...', पिता ने अटकते हुए कहा, '...मुसलमान है...'
छपाक्... जैसे झील में कोई पत्थर गिरा था। गाड़ी ने लंबी सीटी दी और मैं बिना
कुछ कहे आश्चर्य से उनके चेहरे को देखता हुआ बोगी से नीचे उतर गया। उतरते हुए
बाथरूम के पास खड़े उस आदमी को भी देखा। वह एक ओर सरककर खड़ा था और पिता से भी
ज्यादा बीमार लग रहा था। उसकी दाढ़ी बेतरतीब थी।
गाड़ी अब सरकने लगी थी। एक पल के लिए खिड़की के जँगले के अंतराल में पिता और
मेरी नजर मिली और तुरंत इधर-उधर बिखर गई। गाड़ी जा चुकी थी। मैं बाहर की ओर बढ़
गया, यह विचारता हुआ कि क्या यही मेरे कर्मकांडी पिता थे, जो आज भी होटल से
पका अन्न ग्रहण नहीं करते? हो सकता है इस पूरी यात्रा में छूत के भय से
उन्होंने एक कप चाय तक न पी हो। मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था।
बूँदा-बाँदी फिर होने लगी थी। पार्किंग की ओर बढ़ते हुए मैंने सिगरेट निकाल ली
और सोचा कि सुलगाऊँ या नहीं। पिछले तीन घंटे से मैंने एहतियातन सिगरेट नहीं पी
थी। सिगरेट की महक वाला मुँह लिए क्या पिता के पास जाना अच्छा होता?